हो सीमाओं से स्वच्छन्द तेरा विस्तार नया ।
कर सृजन लेखनी एक स्वच्छ संसार नया।।
अदृश्य कंटकों के बीजों से सजी राह है,
देख जगत् का यह स्वरुप मन भरे आह है;
यह विजित मनुजता आज करे क्यों आत्मदाह है,
सुसुप्त भाव भी जागृत हों, बस एक चाह है--
सूखे दरख्त में हो जीवन-संचार नया।
कर सृजन लेखनी एक स्वच्छ संसार नया।।
अनाचार का अधम कुहासा बड़ा सघन है,
विष-वर्षा से अर्द्धदग्ध अपना उपवन है,
उद्विग्न, त्रस्त, शोकाकुल सब हर पल हर क्षण है;
व्यथा-वेदना-आच्छादित प्रकृति कण-कण है,
नवजीवन के खातिर हो सुधा-फुहार नया।
कर सृजन लेखनी एक स्वच्छ संसार नया।।
तेरी माँ, बेटी पूछो मत कैसे जीती है,
धिक्कार! वो दुर्घटनाएं, जो उसपे बीती है,
तेरे रहते बहना तेरी आंसू पीती है,
जला दे दानवता, वो जिस कारण रोती है;
करें चल नारी-गौरव का मिलकर शृंगार नया।
कर सृजन लेखनी एक स्वच्छ संसार नया।।
ऊसर-बंजर पर भी हरीतिमा लाना है,
पत्थर को भी बस आज हमें समझाना है,
धरती-सी बहरों को सब कथा सुनाना है,
असंभव लगता, पूरा कर सभी दिखाना है,
वो देख क्षितिज पर गगन-अवनि-अभिसार नया।
कर सृजन लेखनी एक स्वच्छ संसार नया।।
पाषाण-हृदय पर भी उत्पल महकाना है,
विषाक्त बिचारों को कब्रों में सुलाना है,
हर एक 'मानवबम' को एक 'मनुज' बनाना है,
पके हुए बर्तन पर रंग चढ़ाना है,
विकृत को दे नवरूप बनो कुम्हार नया।
कर सृजन लेखनी एक स्वच्छ संसार नया।।
जन-गण की अशिक्षा, निर्धनता हा! सम्मुख तनती,
बरबस ही भूखे नंगों की तस्वीर-सी बनती
और करुण-कथा कहते-कहते वो क्रन्दन करती,
तस्वीर को देना है हर्षित आकार नया।
कर सृजन लेखनी एक स्वच्छ संसार नया।।
शिक्षा, अध्ययन क्या होता है, न ये जाना,
वो पतंग के खेल, मस्त गाना गाना--
स्वच्छन्द हवाओं के रुख को न पहचाना,
दिन भर काम के बदले में मिलता खाना;
उन कुंठित नन्हें बचपन को दो प्यार नया।
कर सृजन लेखनी एक स्वच्छ संसार नया।।
भले अभी ना, पर हो तेरे बाद सही
कोई प्रमाद, अवसाद या शोक-विषाद नहीं,
दुख-दर्द से आहत कहीं कोई संवाद नहीं,
आमोद-हर्ष से चिर-सुस्मित हो याद यहीं;
भावी संतति को ऐसा उपहार नया।
कर सृजन लेखनी एक स्वच्छ संसार नया।।
भावों की सरिता अविरल, निर्मल, निश्छल हो,
उद्वेलित मन करने की उसमें शक्ति प्रबल हो,
मनोहर सुन्दर बातों से मन में हलचल हो,
मोद-मंगल का अन्तःकरण में कोलाहल हो,
प्रस्फुटित हो हृत्-स्पर्शी वो उद्गार नया ।
कर सृजन लेखनी एक स्वच्छ संसार नया।।
कालजयी इतिहास रचा कोई तुझसा ही,
कथा-संदर्भ में 'मानवता', 'जीवन-पथ-राही',
कागज बनता भू-पृष्ठ कहीं सागर जल स्याही,
जिसमें हर पथिक सदा देखे अपनी प्रतिछाँही;
अखिल वसुन्धरा हो अपना परिवार नया।
कर सृजन लेखनी एक स्वच्छ संसार नया।।
अनंत-उत्स से अनिषिद्ध बहता निर्झर है,
संदेश निरंतर देता-- यह बस जीवन-स्वर है,
आता-जाता हेमंत, बसंत, शिशिर, पतझड़ है,
जीकर भी बन गया मृतक जो गया ठहर है,
ठहरे जीवन में भी ला दे तू ज्वार नया।
कर सृजन लेखनी एक स्वच्छ संसार नया।।
नए परंपराओं का गढ़ गढ़ना बांकी है,
अनकहे गूढ़ प्रश्नों को भी कहना बांकी है,
अथक साथ रह अनिश कार्य करना बांकी है,
विजेता बनने को युद्ध हमें लड़ना बांकी है;
इस योद्धा का तू ही बन जा तलवार नया।
कर सृजन लेखनी एक स्वच्छ संसार नया।।
--- विजय
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4 comments:
Aapne patrakaron ki kalam ko bahut achchhi raah chalne ko kaha hai....
unhe kya karna chahiye, yah aapne kavita me bakhoobi pesh kiya... its really good.
आपने पत्रकारों की कलम से जो आहवान किया है...बहुत अच्छा... जो भारतवर्ष में वांछित परिवर्तन है.. आपने पूरा उकेरा है उसे
धन्यवाद ।
बेशक कविता लंबी है... मगर आपने प्रायः बातें बड़ी गहरी संवेदना के साथ हमारे सामने कविता के रुप में प्रस्तुत कर दी है... पढ़कर बहुत ही अच्छा लगा।
बन्धु !
क्या बात है?
आपकी कृति अति प्रसंशनीय है,
मै अपने सम्पूर्ण आँफिस की तरफ से आप से भविष्य में इसी प्रकार के उत्तम लेख की कामना करता हूँ।
जय माता दी।
--- विनीत कुमार गुप्ता
Software Engineer
( Samtech Infonet Ltd.)
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