पाकर तेरे मूक नयनों का निमंत्रण।
चाहता सर्वस्व कर दूं आज अर्पण।।
चन्द्र-मुख-जाज्वल्य पर कुछ तेज यों,
मैं स्वतः ही हो रहा निस्तेज क्यों;
प्रष्टा बनी चुपचाप मुझसे पूछती है,
असहज होकर वो कुछ पल सोंचती है--
होगी विजय किसकी ? कहीं हारूं न मैं रण।
चाहता सर्वस्व कर दूं आज अर्पण ।।
इस शर्म को न तू समझ कोई पण मेरा,
है अपेक्षित एक परिरम्भण तेरा,
मय सन्निहित हा! उस भृकुटि की तीक्ष्णता--
होता प्रबल बरबस ही मन उद्विग्नता;
मम स्वप्न का प्रतिबिम्ब है यह नेत्र-दर्पण।
चाहता सर्वस्व कर दूं आज अर्पण ।।
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4 comments:
आओ ठाकुर, अभिनन्दन है!
स्वागत है हिन्दी चिट्ठाजगत में!
लगता है कि अभी तक आप नारद पर रजिस्टर नहीं हुए हैं, इसी लिये टिप्पणियों का अकाल है। मेरी सलाह है कि आप नारद से जुड़ जांय।
यहां जाइये aur naarad (feed aggregator) par apane blog ko register katraaiye:
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vijay, hindi aapki behtarren hai. or shubhkamnaein bhi. blog aap jaari rakhen.
pooja prasad
Waaakai awesome h
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